Monday, December 11, 2017

मैं सहस्रपुण्यसन्निधि

उसकी हीअनुगूँज तुम
उसकी ही अनुगूँज मैं
फिर तुम कैसे स्वभाव
मैं कैसे विस्मय
तुम शतदलकमल
मैं न एक लघु सुमन
मुझे न सुई की नोक
तुम्हारा विस्तृत आँगन
तुम विस्तार हो तो
मैं धुरी मैं परिधि
तुम पुण्यप्रसूत तो
मैं सहस्रपुण्यसन्निधि।।
तनिक अपनी दृष्टि को विस्तार दो
संकुचित पुतली-प्रसार दो
समझ पाओगे निज मन के
सृष्टि के विवर्त्त औ विकार को।।

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