दृग में उमड़ता महासमुद्र
उतर आती है सीपियां
खनकती हैं सीपियां
चमकती हैं सीपियां
चहँकती है सीपियां
कुछ रिक्त कुछ मुक्ताभरी
जल उर्मियों से निकलती हैं सीपियां
उर्मियाँ तटों पर उड़ेलती हैं सीपियां
पर ये खनक, ये चमक
ये चहँक, ये चकमक
आसान नहीं होती।
इसके लिए अंधकार भरे
हजारों दिन जीतीं हैं सीपियां
समुद्री लहरों को झेलती हैं सीपियां।
समुद्र गर्भ में गंभीरता को सहती हैं सीपियां।
फिर मुक्ता उगलती हैं सीपियां।
मूल्यहीन का मूल्य तय करती हैं सीपियां।
2 comments:
बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
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