बनाया कोमल फूल
एक झोंके में धूल।
फिर भी नहीं समझ रहे हैं
हम सब अपनी भूल।।
वे अनगढ़ माटी के ढेले हैं
उनको तो तपना होगा।
ताप सहनकर जग-भट्ठी में
पक्की ईंट बनना होगा।।
हीरा अगर चाहते हैं तो
विस्मृत कर दो फूल बनाना।
शुरू करो अभियान पुनः
अनगढ़ माटी को धूल बनाना।।
आओ आज उसे सिखाओ
आकार भूलकर रज हो जाना।।
फिर पड़ने तो कठिन दाब
औ सहने दो असह्य ताप
तब देखो उसका हीरा हो जाना।।
यह चमक सहज न मिलती है
न यह काठिन्य है मुँह का कौर।
हीरा कहाँ से पाओगे
जब फूल बनाने का है दौर।।
यह दौर न उन फूलों का है
जिसमें सुगंध रचती बसती थी
यह समय न उस मकरन्द का है।
जिस हेतु चंचल तितली फिरती थी।।
फूल बनाया नकली उनको
भरी न रंचा भर खुशबू।
चाहा बन जायें साक्षात् चंद्र
पर बनाया उनको केवल जुगनू।।
घोर पतन का द्वार दिखा
पाल रहे उत्थान का मनोरथ।
जबकि ज्ञात तुम्हें है भलीभाँति कि
यह दिवास्वप्न होगा व्यर्थ।।
अब इस अनर्थ पर मत करो विलाप
हाहाकार मचाओ तुम।
अब भी थोड़ा समय बचा है
सोयी बुद्धि जगाओ तुम।।
2 comments:
जागने और अपना बल समेट कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए शब्द .. स्वयं को जगाना होगा अपने बल बुद्धि को ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-12-2017) को "मेरी दो पुस्तकों का विमोचन" (चर्चा अंक-2811) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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