यदि पञ्चत्त्वों के भी
हमारी तरह
जिह्वा और कंठ होता
तो वे आकंठ प्रदूषित
न हो रहे होते
प्रतिकार करते
प्रतिकार में कुछ शब्द,
वाक्य बोलते।
पर वे मौन हैं
कुछ बोल नहीं रहे
इसका तात्पर्य
यह कदापि नहीं कि
वे हमें नहीं जानते
या हमें तोल नहीं रहे।
वे जानते हैं
हमारा दंभ, गर्व, अभिमान
और हमारी औकात
इसलिये चुप हैं
इसलिये संयत हैं।
उनके लिए
हमारे द्वारा फैलाया गया प्रदूषण
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश
और वायु का दूषण
क्या है?
कुछ नहीं
शून्य है।
उन्हें पता है कि
अंततः
हमारे शरीर पर
जिसपर हम इतरा रहे हैं
मुँह चिढ़ा रहे हैं
उसी पञ्चतत्त्व में मिल जाना है
भेदभाव भूलकर
ऊँच-नीच त्यागकर
पञ्चत्त्वों को हमें
आत्मसात् करना है
और फिर पञ्चतत्त्व डाल
कुछ नया रचना है।
@ममतात्रिपाठी
हमारी तरह
जिह्वा और कंठ होता
तो वे आकंठ प्रदूषित
न हो रहे होते
प्रतिकार करते
प्रतिकार में कुछ शब्द,
वाक्य बोलते।
पर वे मौन हैं
कुछ बोल नहीं रहे
इसका तात्पर्य
यह कदापि नहीं कि
वे हमें नहीं जानते
या हमें तोल नहीं रहे।
वे जानते हैं
हमारा दंभ, गर्व, अभिमान
और हमारी औकात
इसलिये चुप हैं
इसलिये संयत हैं।
उनके लिए
हमारे द्वारा फैलाया गया प्रदूषण
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश
और वायु का दूषण
क्या है?
कुछ नहीं
शून्य है।
उन्हें पता है कि
अंततः
हमारे शरीर पर
जिसपर हम इतरा रहे हैं
मुँह चिढ़ा रहे हैं
उसी पञ्चतत्त्व में मिल जाना है
भेदभाव भूलकर
ऊँच-नीच त्यागकर
पञ्चत्त्वों को हमें
आत्मसात् करना है
और फिर पञ्चतत्त्व डाल
कुछ नया रचना है।
@ममतात्रिपाठी
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-03-2017) को "मन्दिर का उन्माद" (चर्चा अंक-2911) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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