Monday, March 19, 2018

स्वार्थ

तुम अंकुर थे
आह्लादित थे
धूप की चाहत में
बढ़ते रहे
नित नयी ऊँचाई
छूते रहे
पर अधिक धूप की
भूख ने
गगनचुंबन की चाह ने
कभी पीछे मुड़कर देखने नहीं दिया
अधिपादपों को उगने नहीं दिया
खर-पतवारों को जमने नहीं दिया
काई - शैवालों को पसरने नहीं दिया
शृंखला की कड़ियाँ बनने नहीं दिया
स्वयं उच्छृंखल बनते चले गये
ऊँचे होते चले गये
सोचा अधिपादपों से
आर्द्रता होगी, उमस होगी
वे भी बाँटेंगे सूरज का प्रकाश
उनमें भी धूप पाने की ललक होगी।
वे भी पियेंगे वर्षा का अकूत जल
उनमें भी स्वाभाविक प्यास होगी।
वे हिस्सा बँटायेंगे धरती की उर्वरता में
उनकी भी पोषण की आस होगी।
अतः तुम उनका साथ छोड़ आगे बढ़ते रहे
सह-अस्तित्व का शाश्वत सिद्धान्त
जानबूझकर भूलते रहे।
अब जब तुम्हारी शाखायें कमजोर हो रही हैं
जड़ें हिल रहीं हैं
पाचन-शक्ति असहाय है
इन्द्रियां त्राहि-त्राहि कर रही हैं
तब तुम क्यों खोज रहे हो
अधिपादपों को
लताओं को
काईयों और शैवालों को
क्यों खोज रहे हो
उन साहाय्य कंधों को
जिनके हिस्से की धूप देना
तुम्हें कभी गँवारा नहीं हुआ
जिन्हें तुम्हारी मजबूत भुजाओं ने
कभी सहारा नहीं दिया।
@ममतात्रिपाठी

No comments:

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...