Monday, March 26, 2018

भव्य एवं स्वभाव

भव्य, सुंदर है
समादृत है
अलंकृत है
प्रशंसित है
परन्तु भव्य से
भी पहले
भव्य से भी
दुर्निवार
एक भाव है
जो हमारा स्वभाव है
जो हमीं में निहित है
सन्निहित है
सम्मिलित है
हमारे भावों से
मुखरित है
अभिव्यक्त है।
भव्य बनने की
प्रतियोगिता में
स्पर्धा में
हम निहित भाव को
निज स्वभाव को
न छोड़े
भव्यता की ललक में
उदासीनता से
आत्महीनता से
भाव शून्यता से
नाता न जोड़े
भव्य बनना अच्छा है
भवनों के लिये
पर स्व-भाव में रहना अच्छा है
हमारे मनों के लिये

1 comment:

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-03-2018) को ) "घटता है पल पल जीवन" (चर्चा अंक-2923) पर होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...