जब तक एक ऋतु से
सामञ्जस्य बैठाती हूँ
उसे चीन्हती हूँ
पहचानती हूँ
कुछ अपना बनाती हूँ
तब तक वह कह उठती है
अच्छा अब मैं चलती हूँ।
फिर दूसरी ऋतु
दरवाजा खटखटाती है
अपने पग बढ़ाती है
मैं उसे चीन्हने में
लग जाती हूँ
उससे तारतम्य और
सामञ्जस्य बैठाती हूँ
पर पहचान के निकट पहुँचते ही
वह भी विदा हो लेती है
और फिर विदाई और
पहचान का का यह क्रम
बना रहता है।
ऋतुओं और जीवन में
ठना रहता है
सामञ्जस्य बैठाती हूँ
उसे चीन्हती हूँ
पहचानती हूँ
कुछ अपना बनाती हूँ
तब तक वह कह उठती है
अच्छा अब मैं चलती हूँ।
फिर दूसरी ऋतु
दरवाजा खटखटाती है
अपने पग बढ़ाती है
मैं उसे चीन्हने में
लग जाती हूँ
उससे तारतम्य और
सामञ्जस्य बैठाती हूँ
पर पहचान के निकट पहुँचते ही
वह भी विदा हो लेती है
और फिर विदाई और
पहचान का का यह क्रम
बना रहता है।
ऋतुओं और जीवन में
ठना रहता है
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