बेटियाँ भार नहीं होतीं
वे होती हैं
स्वच्छ जल की भाँति
स्वच्छ वायु की भाँति
स्वच्छ अग्नि की भाँति
वे बहती हैं
शीतलता देती हैं
स्वच्छ जल की धार सी
स्वच्छ बयार सी
वे जलती हैं
ऊर्जा देती हैं
यज्ञ की शिखा सी
ये तो तुम हो
और समाज है
जो अवसादों से
अपने विचार
और व्यवहार के
अपशिष्ट से
उस जल-प्रवाह को
दूषित करता है
उस वायु को
प्रदूषित करता है
अपना भार
अपना क्षरण
लादकर
अवसादों से भरकर
उस जल और
वायु को
अवसादी बनाता है
भार बनाता है।
बेटियाँ भार नहीं होतीं
यह समाज है जो
अनुचित ईंधन
झोंककर
वायु का पथ रोककर
अग्नि को
दूषित करता है
और प्रज्वलित
शिखा को
धुँआ बनने पर
विवश करता है
फिर उसके
अस्तित्व पर प्रश्न करता है।
फिर भी...
बेटियाँ
सभी अवसादों को ढोकर
तुम्हारे अपक्षय
और अपरदन को
स्वयं पर लादकर
उसे आत्मसात् कर
जल सी वायु सी
मंथर ही सही
बहती रहती हैं
अपने शक्ति भर
संजीवनी बन
जीवन गढ़ती
रहती हैं।
और जब अवसादों का भार
उनसे ढोया नहीं जाता
तब भी वे
हार नहीं मानतीं
रूपांतरित शैल सी
रूपांतरित होकर
फिर आग्नेय बन जाती हैं
और अटल
अखंड भूखंड सी
खड़ी हो जाती हैं
जिन्हें कोई भूकंप
कोई सुनामी
डिगा नहीं सकती
डरा नहीं सकती।
वे अवसादों का संघनन कर
बरस पड़ती हैं
और फिर
अवसाद मुक्त हो उठती हैं।
धुआँ बनने पर भी
आग को गर्भ में छुपाये
अवसर मिलते ही
धधक पड़ती हैं
हर परिस्थिति में
चिनगी बचाये रहती हैं
आग जलाये रहती हैं
ज्वाला बनने के लिए।
आग बनने के लिए।
बेटियाँ भार नहीं होतीं
वे नहीं भूलतीं
अपना स्वभाव
संरक्षण का
संवर्धन का
और सृजन का।
हर परिस्थिति में वे
अपनी मौलिकता
बचाये रहती हैं
भस्म होकर भी
स्वधा का मंत्र गाती हैं
बेटियाँ भार नहीं होतीं
वे बिना प्रतिकार
तुम्हारा
भार ढोती हैं
कि संभवतः कभी
तुम्हारी आँख खुले
और तुम अपनी करनी को
समझ पाओ
सम्हल जाओ।
No comments:
Post a Comment