आतंकवाद !
आतंकवाद!
आतंकवाद !
बहुत भयावह लगता है यह शब्द
है न लगता है भयावह !
क्यों न लगे ?
इस वृक्ष की जड़े
रक्त से सींची गयीं हैं
रक्त से पल-पोसकर ये बड़ा हुआ है
जब रक्तिम है इसका
आदि और अन्त
तो भयावह तो लगेगा ही
ये आतंकवादी हैं
कहते हैं कि इनका
जाति और धर्म नहीं होता
बस इनका कर्म ही
होता है इनका धर्म
मुझे समझ में नहीं आता कि
आखिर इन रक्त से सने आतंकवादियों के
सन्दर्भ में
उनके कार्य के सन्दर्भ में
उनकी जाति के सन्दर्भ में
उनके धर्म के सन्दर्भ में
इन तथाकथित
सेक्यूलरवादियों को
उनके स्वनामधन्य आकाओं को
एवं उनके सरंक्षण दाताओं को
कौन सा फार्मूला नज़र आता है?
और यही फार्मूला उस समय क्यों
बदल जाता है?
जब किसी दूसरे संगठन को
जो आतंकवादी नही है
आतंकवाद से
जिसका दूर-दूर तक कुछ लेना-देना नही है
पर आतंकवाद का सख्त विरोधी है
उसको
उसके कार्यकर्ताओं को
उसके गतिविधियों को
आतंकवादी करार देते समय।
उस समय इनका फार्मूला क्यों बदल जाता है ?
तब ये देश , धर्म, जाति से
उसे व्यर्थ में जोड़ने की कोशिश में
ऎड़ी से चोटी का बल क्यों लगाने लगते हैं ?
तब कहाँ चला जाता है
इनका तथाकथित सेक्यूलर चेहरा ?
तब अपनी सेक्युलरिस्ट नकाब उतार
उस संगठन के पीछे बेहया से
क्यों दौड़ने लगते हैं ?
क्या ये
जो यथार्थ में आतंकवादी हैं
मात्र उनके जाति, धर्म ,
देश के बारे में
सेक्यूलर बनकर
उन्हें नज़र अन्दाज़ करना जानते हैं बस ।
क्या ये मात्र एकपक्षीय सेक्यूलर हैं?
या सेक्यूलर बनने का ढोंग रचे रंगे सियार मात्र है
जिनका रंग अचानक उस समय उतर जाता है
और जो उस समय
अपनी सियारबानी हुक्का हुवाँ-हुवाँ हुवाँ
चिल्लाने की कसक
रोंक नही पाते
जब इन्हें कोई
राष्ट्रवादी संगठन
उसके कार्यकर्ता
उसकी गतिविधियाँ मिल जाती हैं
सुई की नोंक घुसाने के लिये
और तब बेचारे ये
अपनी आदत के अनुसार
अपने को रोंक नही पाते
और लगा देते हैं अपना ऎड़ी से चुरकी का बल
उनको आतंकवादी करार देने के लिये
तथा एक स्वर में चिल्लाने को
आतुर हो उठते हैं अपनी लत के अनुसार
तब इनका रंग धुल जाता है और जनता
इनके छद्म सेक्यूलरिस्ट चेहरे को पहचान लेती है ।
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1 comment:
ममता,
बहुत ही अच्छी प्रकार से लिखी गयी रचना के माध्यम से आपने छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों की खुब खबर ली है। बधाई....लेखनी से तीव्र प्रहार करने हेतु।
एक बात और, यदि आप वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें तो ज्यादा उपयुक्त रहे। आज ब्लॉग-जगत में लोग इसे ज्यादा तर्कसंगत नहीं मानते।
सस्नेह,
मणि दिवाकर.
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