Saturday, June 27, 2020

पूत

माँ-बाप का दुत्कारत हैं
औ कूकुर-बिलार दुलारत हैं
यहि मेर पुतवै पुरखन का
नरक से तारत है
ड्यौढ़ी दरकावत औ
ढबरी बुतावत है
देखौ कुलदीपकऊ
कुल कै दीपक बारत है।
कीर्ति करिखा करत
प्रतिष्ठा स्वाहा करत
पेड़-पालौ औ
खेत-बगियय नाहीं
श्मशानौ बेचि डारत हैं
सत्तर देवखरन का
पूजि कै भये भैया
आज माई-बाप का
आँख तरेरत हैं।।
मरे पै पानी देहैं
वहकै तो पता नाहीं
परान रहे जे
बूँद-बूँद तरसावत हैं।

8 comments:

कविता रावत said...

ऐसे कपूतों से निपूत भले
आज यही रोना है
सटीक चिंतनशील प्रस्तुति

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 28 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (22-06-2020) को 'नागफनी के फूल' (चर्चा अंक 3747)' पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
-रवीन्द्र सिंह यादव

विश्वमोहन said...

वाह! तभी तो
पूत कपूत तो क्यों धन संचै
पूत सपूत तो क्यों धन संचै।

अनीता सैनी said...

वाह!बेहतरीन सृजन .
सादर

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आजकल के हालात का सही चित्रण।

Anuradha chauhan said...

बहुत सुंदर और सार्थक सृजन

Onkar said...

बहुत सुन्दर

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...