Tuesday, June 28, 2011

लो आ गयी ऋतु वर्षा मनभावन

पंक्तिबद्ध पिपीलिका, मोहक मयूरनर्तन।

शीतल समीर वाह घोर मेघ-गर्जन।

लो आ गयी ऋतु वर्षा मनभावन।।

हर्षित-पुलकित-प्रफुल्लित है जन-जन।

आशा-विश्वास से आपूरित कृषक-मन।।

भीनीं फुहारों से पतित हुए रज-कण।

तेज बौछारों से धुल गया वन-उपवन।।

हरीतिमा से धूल हटी, सत्वर निखर गयी।

धरती ने मानो पहनी धानी चुनरी नयी।।

द्वार पर खड़ा है सावन मनभावन।

डालियों पर झूले, कजरी का गायन।।

स्वागतम् मेघ बरसो तुम छन-छन।

दूर करो धरती की जड़ता अरु तपन॥

19 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

वर्षा ऋतु का मन भावन चित्र प्रस्तुत किया है आपने.

सादर
--------------------------
वक़्त

Mukesh said...

एक अच्छी रचना..............................................................और कुछ नहीं है कहना...........बस्स

मनोज कुमार said...

अच्छा प्रयास।

केवल राम said...

द्वार पर खड़ा है सावन मनभावन।
डालियों पर झूले, कजरी का गायन।।
स्वागतम् मेघ बरसो तुम छन-छन।
दूर करो धरती की जड़ता अरु तपन॥

बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़कर मन हर्षित हो गया .....वर्षा ऋतू के आगमन पर आपका मेघ को पुकारना अच्छा लगा ....!

Roshi said...

barish ka man bhavan chitran

Shalini kaushik said...

mamta bahut din bad samne aayi hain aap.bahut sundar prastuti lekar.kahan thi aap jaldi jaldi aisee post den ye panktiyan bahut achchhi lagi-
द्वार पर खड़ा है सावन मनभावन।

डालियों पर झूले, कजरी का गायन।।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मनोहारी चित्रण..... सुंदर शाब्दिक अलंकरण लिए रचना

पी.एस .भाकुनी said...

खुबसूरत शब्दों का बेहतरीन ताना-बाना,,,
मन भावन सावन का अभिनन्दन करती उपरोक्त सुंदर रचना हेतु आभार.........

अरुण चन्द्र रॉय said...

लग रहा है कि पन्त, निराला, प्रसाद को पढ़ रहा हू... बहुत सुन्दर !

Ravi Rajbhar said...

Bhig gaye ji ham to ....!

o din yad agye jab ham log delhi se gaon jate the... aur barish me didi log darwaje ke neem par jhoola dalti thi...aur bich me mai baitha tha.... fir suru hota tha kazar ka geet... mujhe pura yad hi.

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

ममता त्रिपाठी जी -वर्षा ऋतु का बहुत ही सुन्दर चित्रण और लगभग सब दृश्यों का समावेश -प्यारी रचना -सारगर्भित
कृपया भ्रमर की माधुरी, रस रंग भ्रमर का में भी पधारें
शुक्ल भ्रमर ५
http://surendrashuklabhramar.blogspot.com

रंजना said...

वाह...वाह...वाह...

शब्द फुहार बन ह्रदय भिंगो गए....

अप्रतिम रचना....

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर...

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

acchhi hindi.....pyaari hindi..... acchha lagaa yahaan aakar mujhe....

Rakesh Kumar said...

बहुत सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है आपने वर्षा ऋतु का.
हर शब्द गुंजायमान हो रहा है.
अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.

मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है

S.N SHUKLA said...

bahut khoobsoorat prastuti

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...





ममता जी
सस्नेहाभिवादन !

अवश्य ही विलंब से पहुंचा हूं … लेकिन सुंदर रचना ने भाद्रपद में भी श्रावण मास की झड़ी का आभास करा दिया …
भीनीं फुहारों से पतित हुए रज-कण।
तेज बौछारों से धुल गया वन-उपवन।।

हरीतिमा से धूल हटी, सत्वर निखर गयी।
धरती ने मानो पहनी धानी चुनरी नयी।।

द्वार पर खड़ा है सावन मनभावन।
डालियों पर झूले, कजरी का गायन।।

स्वागतम् मेघ बरसो तुम छन-छन।
दूर करो धरती की जड़ता अरु तपन॥


बहुत सुंदर ! हृदयहारी काव्य !

आप काव्य सृजन इतना कम तो नहीं करती होंगी … अपनी रचनाएं अधिक से अधिक पढ़ने का अवसर दिया कीजिए न ! :)


… और अंत में आपको
बीते हुए हर पर्व-त्यौंहार सहित
आने वाले सभी उत्सवों-मंगलदिवसों के लिए
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Asha Joglekar said...

बेहद मनभावन आपका ये रचन
द्वार पर मन के झूम उठा सावन ।

रविकर said...

साढ़े छह सौ कर रहे, चर्चा का अनुसरण |
सुप्तावस्था में पड़े, कुछ पाठक-उपकरण |

कुछ पाठक-उपकरण, आइये चर्चा पढ़िए |
खाली पड़ा स्थान, टिप्पणी अपनी करिए |

रविकर सच्चे दोस्त, काम आते हैं गाढे |
आऊँ हर हफ्ते, पड़े दिन साती-साढ़े ||

http://charchamanch.blogspot.com/

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

.


ममता जी

ब्लॉग जगत पलक-पांवड़े बिछाए'अंतर्जाल पर आपकी वापसी का इंतज़ार कर रहा है…
:)

आशा है, सपरिवार स्वस्थ-सानंद हैं …
शुभकामनाओं सहित…

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...