Thursday, August 28, 2008

मानस

मानस,
मेरा मानस
कभी-कभी विचारों के
सागर में डूबने लगता है
तब मुझे बहती हुई हवा में
जलता हुआ विश्वास का
प्रखर लौ से पूर्ण
चिराग दिखने लगता है ।
मेरा मानस तब
उसको पकडने को व्याकुल हो
हवा में दौडने लगता है।
पर यह यथार्थ है कि
कभी मेरा मानस
उसे पाता नहीं
हर दौड के बाद
थक-हारकर
लौट आता है
मेरे पास
जानकर यह कटु यथार्थ
कि यहां रहना है सदा
रीते हाथ।
और जब जाना है
तो भी रीते हाथ
फिर सोंचता है मानस
कि क्यों करूं
मैं व्यर्थ प्रयास ?
यही सोचता हुआ
वह विश्राम की अवस्था
में चला जाता है
धीरे-धीरे
गहरी नींद में सो जाता है
फिर अचानक उठ पडता है
नींद से विश्राम लेकर
एक नयी स्फूर्ति के साथ
और
गीता के उपदेश को शिरोधार्य कर
लग जाता है अपने काम में
और कहता है "कर्मण्येव वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

2 comments:

दिवाकर मिश्र said...

वाह, अच्छी रचना है । आपकी कविताएँ इधर उधर भी मिलती रहती हैं । उन्हें एक साथ रखें तो लोगों को एक साथ अधिक सामग्री मिल सकेगी और आपके साथ ब्लॉग पाठकों का अच्छा परिचय हो सकेगा ।

Yashwant R. B. Mathur said...

"...गीता के उपदेश को शिरोधार्य कर
लग जाता है अपने काम में
और कहता है "कर्मण्येव वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

बहुत ही गहरे भाव लिए है आपकी यह कविता और निश्चित रूप से सभी को अपना कर्म करते रहने की सार्थक प्रेरणा देती हुई.

यथार्थ

रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...