Thursday, September 4, 2008

चेहरों को नक़ाब से ढकना छोड़ दें

तुम कहते हो कि हम शाम में च़रागों को जलाना छोड़ दें
तुम कहते हो कि हम रात को महफिल में आना छोड़ दें
तुम कहते हो कि हम अपनी शहनाइयाँ बजाना छोड़ दें
तुम कहते हो कि हम इक-दूजे के कान मे फुसफुसाना छोड़ दें
तुम कहते हो कि हम बेखौफ़ गलियों में घूमना छोड़ दें
तुम कहते हो कि हम होली को रंग में नहाना छोड़ दें
तुम कहते हो कि हम अकेले में गुगुनाना छोड़ दें
तुम कहते हो कि अपना प्यारा तराना छोड़ दें
क्योंकि आज घरों के तहखानों तक दुश्मन की नज़रें है
हमारी वीरानियों औ तन्हाइयों पर भी पर भी उनके पहरें हैं
पिछले बरस के घावों पर मरहम नहीं लगा अभी
वो आतंक के दिन मेरे सर्द ज़ेहन में अभी हरे हैं
वो जख्म शोलों से गर्म है हमारे सीनों मे बन्द
कब के फूट पड़ते वे पर यहाँ छद्म सेक्यूलरों के पहरे हैं
तुम्हारी एक बात मानेगे हम नहीं न अब तलक माने हैं
आग सुलगती रहे पर हम भी सीना तानें है
हम जानते हैं इन नक़ाबों में छुपे चेहरों को
और इन के आकाओं के हाई-फाई पहरों को
और यह भी मालूम है कि इन नकाबों के पीछे
एक सर्द शैतानी चेहरा ज़र्द़ बना बैठा है
हम उस ज़र्द़ चेहरे को सर्द बना देंगे।
मत कहो हमसे कि हम गलियों में निकलना छोड़ दें
इन शैतानियों के पीछे छुपे चेहरों से कहो कि
साहस हो तो वे अपने चेहरों को नक़ाब से ढकना छोड़ दें

2 comments:

Mukesh said...

बहुत अच्छी कविता है ।
धन्यवाद

Art ABHAY said...

Very nice

यथार्थ

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