वे मेरे बीते हुए दिन।
वो सूरज की लाली,
वो बहती हवा,
वो चिड़ियों की बोली,
वो कोयल की कूक,
वो घनी अमराई
वो खुली हुई धूप।
वो बचपन की किलकारियाँ
वो कथा-कहानियाँ
वो सखियों का प्यार॥
वो बड़ों की डाँट-फटकार,
वो प्यार वो दुलार।
वो बचपन हा हठ,
घण्टों मनुहार।
कोई लौटा दे मुझको
मेरे बचपन का प्यार।
रंगों और दीयों से सजा
हर त्योहार।।
Sunday, December 12, 2010
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यथार्थ
रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...
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माँ-बाप का दुत्कारत हैं औ कूकुर-बिलार दुलारत हैं यहि मेर पुतवै पुरखन का नरक से तारत है ड्यौढ़ी दरकावत औ ढबरी बुतावत है देखौ कुलदीपकऊ ...
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रिश्ते-नाते, जान-पहचान औ हालचाल सब जुड़े टके से। टका नहीं यदि जेब में तो रहते सभी कटे-कटे से।। मधुमक्खी भी वहीं मँडराती मकरन्द जहाँ वह पाती ...
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खिड़कियों से झाँककर संसार निहारें हम ऐसा हमारे बड़ों ने संसार सौंपा है। अपनी भोगलिप्सा से पञ्चतत्त्व प्रदूषित कर हमें चुनौति...
24 comments:
काश ऐसा हो पाता ... कितना अच्छा होता। बहुर सुंदर अभिव्यक्ति।
मानव -जीवन से बहुत सी ज़रूरी चीजें गायब होती जा रही हैं. जैसे-फूलों की महक और चिड़ियों की चहक. आपकी रचना में भी यह चिंता उभरकर आयी है. इंसानी जिंदगी से गायब हो रही इन ज़रूरी चीजों के विलुप्त होने की जिम्मेदारी भी हम इंसानों पर ही तो है. बहरहाल एक अच्छी कविता के लिए बधाई.
बीते दिन नहीं आते,आने वाले दिनों को खूबसूरत बनाने के बारे में सोंचें
ममता त्रिपाठी जी
नमस्कार !
कोई लौटा दे बहुत सहज भावों से सृजित ईमानदार रचना है । बहुत बहुत बधाई !
सच है कि गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा फिर भी बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी …
इंसान कितना ही तरक़्क़ी करले, अपने बीते हुए सरल साधारण दिनों की स्मृतियां आजीवन एक अमूल्य धरोहर की तरह संजोये सहेजे हुए रखता है ।
हम सब अतीतप्रेमी हैं !
पुनः ,बधाई और आभार … मुझे भी अपने बीते हुए दिनों की यादों में झांकने का अवसर देने के लिए !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
ये नही हो सकता , पर जो है उसे खूबसूरत बनाने की कोशिस हो सकती है ,
बहुत सुन्दर कविता... जैसे बचपन लोट आया हो
काश ऐसा हो पाता?
बहुर सुंदर अभिव्यक्ति।
बहुर सुंदर अभिव्यक्ति!
जीवन गतिशीलता का नाम है....गति में बहुत कुछ पीछे छूट जाता है, साथ रह जाती हैं तो केवल स्मृतियां... इसलिये प्रत्येक पल का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिये ताकि कोई पल आपसे शिकायत न करे ।
इस उत्तम अभिव्यक्ति के लिये साधुवाद....
इक पड़ाव जीवन में ऐसा आता ही है (शायद सबके जीवन में) जब आप लौट जाना चाहते हैं बहुत पीछे! ये रचना बहुत अच्छी लगी..कुछ ही दिन पहले मैं इतना बोझिल था कि बस इक़ धुन सी लगी...काश कोई लौटा दे वो सब...पर मुमकिन कहाँ?
जारी रहें. शुभकामनाएं.
--
पंख, आबिदा और खुदा के लिए
सिर्फ यादें ही रह जाती है और सताती है बार बार!
बहुत खूबसूरत कविता .सुन्दर अहसास.....बधाई.
'सप्तरंगी प्रेम' के लिए आपकी प्रेम आधारित रचनाओं का स्वागत है.
hindi.literature@yahoo.com पर मेल कर सकती हैं.
Mamta di kaafi achi rachna hai padhkar aisa laga aki aaj ki bhag -daud me na jane kya-kya kho gaya hai ab to do chan fursat se baithne ka bi samay nahi hai...mujhe yad aa rahi hai kisi songs ki vo line jisme kaha gaya hai..."koi lauta de mere fursat ke vo chaar din..."
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ममता जी यदि वास्तव में ऐसा हो तो कितना अच्छा होगा काश बीते हुए दिन लौट आये
अतीत की यादें ही तो हमें वर्तमान से समन्वय स्थापित करने के लिए अभिप्रेरित करती हैं। बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
bahut hi sundar..
mere blog par bhi kabhi aaiye
Lyrics Mantra
काश! कोई लौटा दे...
गृह विरह (नोस्टाल्जिया ) की गहन अनुभूति और अभिव्यक्ति -सच ऐसी अनुभूति किसी भी सरल और संवेदी मन को संस्पर्शित करती रहती है .....सुन्दर !
काश लौट के आ पाते वे दिन..सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
आपकी इस हृदयहारी रचना के उत्तर में मैं आपको एक लिंक देती हूँ...
http://samvednasansaar.blogspot.com/2008/06/blog-post.html#links
बीते हुए दिन सिर्फ यादें बन कर मन के किसी कोने में छुप जाते हैं जो अक्सर उस कोने से बाहर आकर ऐसे कुलबुलाते हैं जैसे लुका छिपी का खेल खेल रहे हों.अफ़सोस इस खेल में हमें हारना ही पड़ता है क्योंकि वो दिन दुबारा हु-ब-हु नहीं आ सकते.
बेहतरीन कविता के लिए बधाई.
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