Monday, August 27, 2012

वर्षा


वन-कानन औ बाग बगीचे,
निज अपने जल से है सींचे ।
भीषण तप्त रवि किरणों को,
छुपा लिया निज तन पीछे ॥
तप्त और बेहाल धरा को,
नवजीवन का दान दिया है ।
निरीह निर्जल नयनों को,
जीवन का वरदान दिया है ॥
साकार सृष्टि सागर से पाकर,
हिमगिरि को भी मान दिया है ।
प्रतीक्षारत प्यासे कण्ठों को,
शीतलता ससम्मान दिया है ॥
प्रेरणास्पद औ रोचक कितना,
तेरे जन्म-बलिदान का किस्सा ।
’परहित हेतु समर्पित होना’,
तुझ से ही है जग का हिस्सा ॥


4 comments:

Shalini kaushik said...

साकार सृष्टि सागर से पाकर,
हिमगिरि को भी मान दिया है ।
प्रतीक्षारत प्यासे कण्ठों को,
शीतलता ससम्मान दिया है .बहुत सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.तुम मुझको क्या दे पाओगे?

प्रेम सरोवर said...

बहुत सुंदर। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

रंजना said...

वाह...बहुत ही सुन्दर...

शीतलता और तृप्ति मन पर बिछ गयी...

सचमुच यह प्रकृति अपने भिन्न भिन्न रंगों से जहाँ सुख से सराबोर करती है, वहीँ कितना कुछ सीखने को देती है...

Madan Mohan Saxena said...

वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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