माँ-बाप का दुत्कारत हैं
औ कूकुर-बिलार दुलारत हैं
यहि मेर पुतवै पुरखन का
नरक से तारत है
ड्यौढ़ी दरकावत औ
ढबरी बुतावत है
देखौ कुलदीपकऊ
कुल कै दीपक बारत है।
कीर्ति करिखा करत
प्रतिष्ठा स्वाहा करत
पेड़-पालौ औ
खेत-बगियय नाहीं
श्मशानौ बेचि डारत हैं
सत्तर देवखरन का
पूजि कै भये भैया
आज माई-बाप का
आँख तरेरत हैं।।
मरे पै पानी देहैं
वहकै तो पता नाहीं
परान रहे जे
बूँद-बूँद तरसावत हैं।
औ कूकुर-बिलार दुलारत हैं
यहि मेर पुतवै पुरखन का
नरक से तारत है
ड्यौढ़ी दरकावत औ
ढबरी बुतावत है
देखौ कुलदीपकऊ
कुल कै दीपक बारत है।
कीर्ति करिखा करत
प्रतिष्ठा स्वाहा करत
पेड़-पालौ औ
खेत-बगियय नाहीं
श्मशानौ बेचि डारत हैं
सत्तर देवखरन का
पूजि कै भये भैया
आज माई-बाप का
आँख तरेरत हैं।।
मरे पै पानी देहैं
वहकै तो पता नाहीं
परान रहे जे
बूँद-बूँद तरसावत हैं।
8 comments:
ऐसे कपूतों से निपूत भले
आज यही रोना है
सटीक चिंतनशील प्रस्तुति
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 28 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (22-06-2020) को 'नागफनी के फूल' (चर्चा अंक 3747)' पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
-रवीन्द्र सिंह यादव
वाह! तभी तो
पूत कपूत तो क्यों धन संचै
पूत सपूत तो क्यों धन संचै।
वाह!बेहतरीन सृजन .
सादर
आजकल के हालात का सही चित्रण।
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन
बहुत सुन्दर
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